रात बहुत गुज़र चुकी थी। सितारे झिल्मिला कर आस्मान मे डूब रहे थे। जिया बार रौशनी बढने लगी थी। कैनात अंगडाई लेकर बेदार हो रही थी। पुर्कैफ़ और फरहत बख्श हवा के तासुर से कायनात का ज़ररा ज़ररा पत्ता पत्ता तारो ताज़ा होकर चमक उठा था। रेग जार का शबनम से भीगा हुवा । सफ़ेद रेत निहायत प्यारा मालूम हो रहा था। तमाम हुजाज़ सारा अरब रेग्ज़ार है। बिल्कुल ऐसा मालूम होता था। जैसा के रेत का समंदर लहरे ले रहा हो।रेगास्तान होने की वजा से अरब की आब ओ हवा खुशक है। गरम मुल्क होनेकी वजा गर्मी भी ज़्यादा पड़ती है।
बा ओ समोम यानी ज़हेरेली हवा। मुल्क अरब मी ही चलती है। जो इंसानों को चश्मे ज़दन मी मस्मूम करके मार डालती है। सारे मुल्क मी रेत के इस कदर फलक नुमा तोदे है। के मेलो सब्ज़ा का निशान नज़र नही आता। एक भी दर्या नही।
रेत मुसाफिरों को ऐसा चुप लेती है के फ़िर उन का पता ही नही चलता। अगर अरसा बाद पता भी चलता है। टू उन की हड्डियों का जो रेत के निचे दबी हूवी इस वक्त नमूदार होती हैं। jअब बादे सर रेत को एक जगा से उठाकर दूसरी जगा फेंक देती है यही वजा है के सयाहान ऐ आलम को अन्द्रून ऐ अरब मे जाने की इजाज़त नही होती। लेकिन यही रेग जार जो दिन मी जोज़ख का नमूना बना होता है रात को अच्छा मालूम होने लगता है। और सुबह के वक्त इस की दिल्फ्रेबी और भी बढ़ जाती है।
हमारे नावेल का आगाज़ सन् इस्वी ६११ या सन् १ नबूवत से है। इस वक्त तमाम हुजाज़ सारे अरब मे बूतो और सितारों की पूजा की जाती थी। तमाम अरब, अरब का हर कबीला और कबीला का हर फर्द बुतों और सितारों का परस्तार था। लेकिन ये अजीब बात है की बुतों और सितारों के पूजते हुवे भी हषर नाषर और योम ऐ जजा के कायल थे।
मुर्दो को दफ़न करते। कबरो पर उन्तो को इस लिए जीभा करते थे के इन का अकिदा था की मुज्धा योम ऐ मह्षर इस ऊंट पर सवार होकर चलेगा। वो तोहिद के कायिल थे। कायनात का पैदा करने वाला मानते थे. बुतों को बारगाह ऐ रब्बुल इज्ज़त मी शफी समझ कर इन की परस्तिश करते थे। सुबह हो चुकी थी। नसीम सहरी चल रही थी। आस्मान तबस्सुम रेज़ होकार ऐसा रोशन होगया था जैसे किसी मई पारा मुस्कुराने से उस के चाँद से चहरे पर हुस्न की लहरे दोड कर इस के चहरे को इस कदर मुनवर कर दी। के वो तनवीर ऐ हुस्न बन जाए। इस वक्त मक्का के एक गोशे से निहायत हलकी सुरेली आवाज़ पैदा हवी जो बताद्रिज बढ़ने लगी। और बढ़ती गई। और बढ़ते बढ़ते इस कदर बढ़ी के शहर ऐ मक्का के गली गली कुचे कुचे घर मी इस की आवाज़ सुनी गई। आज अरबो का योम ऐ ईद था. वो बहुत सवेरे बेदार हो चुके। आवाज़ को सुन कर मर्द और बच्चे बय्तुल हराम मी दोड़ने लगे। मक्का के गली कुचो मी हलचल शुरू हो गई। और लोगो के गोल तेज़ी से जाते नज़र लगे। सुरेली आवाज़ अभी तक बुलंद हो रही थी। निहायत दिलकश आवाज़ थी। ऐसा मालूम होता था जैसे कोई सुरेला बाजा बजा रहा हो।
लोग ऐत्राफ ऐ शहर से तेज़ी के साथ बय्तुल हराम की तरफ़ दोड रहे थे. ज़र्क बर्क पोशाके पहने हुवे थे। जार तार टपके बंधे हुवे थे। पूरे अरबी लिबास मी मलबूस थे। बय्तुल हराम यानि खाना ऐ काबा बिच शहर मी वाक्का था। यही वो हरम शरीफ है जिस की बुन्याद हज़रत इब्राहीम अलय्ही अस्सलाम ने रखी थी। मुद्दतों तक तोहिद परस्तो खुदा के पूजने वालो का मल्जा व मावा रहा था। अब बुत परस्तो के कब्जे मी था।
अरब दोड कर खाने काबा के चारू तरफ़ खड़े होते चले जा रहे थे। खाने काबा के निचे ही एक कुंवा था। यही कुंवा दुन्या मी ज़मज़म के नाम से मशहूर है। कुंवे के मन के करीब इधर उधर बड़े बड़े दो बुत थे। इन मी से एक बुत किसी हसींn औरत का मुजस्सामा था।
इस बुत का नाम नायला था। दूसरा बुत एक कविउल हब्सा इंसान की शकल का था। ऐसा मालूम होता था की जैसे कोयी पहलवान अपने हरिफ को जेर करके खड़ा खुश हो रहा हो। इस बुत का नाम असाफ़ था। तमाम अरब इन दो बुतों का अह्त्राम करते थे। इन के सामने आते ही सजदे मी गिर पड़ते थे। चुनांचा जो लोग इस तरफ आए या आते रहे। वो इन के सामने आते ही सजदे मी गिर पड़ते थे..... बाजा अभी तक निहायत सुरीले अंदाज़ मी बज रहा था। ऐसा मालुम होता था। जैसे हरम शरीफ के अंदर बज रहा हो। खाने काबा के तमाम दरवाज़े अभी तक बंद थे। वजा ये है के मुल्क अरब मी उमुमन और मक्का मी खुसुसन कुरैश का कबीला सरबर आवरदा था। हर कबीला कुरैश से दबता और इन की फर्मंबर्दारी को बयिसे फखर समझता था। कबीला कुरैश के सरदार अब्दुल मुताल्लिब थे। इन का इंतकाल हो चुका था। अब्दुल मुताल्लिब के दस बेटे हारिस, जुबेर, हजल, ज़रार, मासूम, हम्ज़ा, अबू लहब, अबू तालिब, अब्दुल्लाह और अब्बास थे। इन मी से सिर्फ़ हम्ज़ा, अबुल तालिब, अबू लहब और अब्बास जिंदा थे। बाक़ी मर चुके थे. कबीला कुरैश ने अबू तालिब को अपना सरदार तसलीम कर लिया था। अरबी कबयिल मी ये दस्तूर था के इन का सरदार वही शख्स हो सकता था। जो बहतरीन शायर, बहतरीन मुदाब्बिर, बहतरीन सियासत दान और सब से ज़्यादा बहादुर था। अबू तालिब मी ये तमाम औसाफ़ मौजूद थे। तमाम कबायील इन की बहादुरी शायरी बरतरी और सियासत दानी का लोहा मानते थे। इन का इस कदर रोअब था की किसी को इन के सामने बोलने की जुरात नही होती थी। अबू तालिब बय्तुल हराम के कुलिद बरादर थे। जब तक वो आकर दरवाजा न खोलते थे। कोयी अन्दर ना दाखिल हो सकता था। जब अरब के तमाम कबायिल आ चुके to अबू तालिब म अपने भाईयों अबू लहब, हम्ज़ा और अब्बास के आए। चुके वो मक्का के वाणी या बादशाह थे इस लिए इन के साथ कबीला कुरैश के ज़्यादा आदमी थे। अबू तालिब ने आते ही दरवाजा खोला। पहले ख़ुद खाने काबा मी दाखिल हुवे। इन के बाद इन के भाई - भाईयों के बाद कुरैश का कबीला अन्दर गया। अब अबू तालिब ने हुक्म दिया हरम पाक के तमाम दरवाज़े खोल दिए जायें। ये हुक्म होते ही चारु तरफ से दरवाज़े खोल दिए गए।
और तमाम कबायिल खाने काबा मी जोक दर्जोक दाखिल होने लगे। बय्तुल हराम की इमारत अन्दर से निहायत शानदार थी। सरवरी नुमा सेंक्रो कमरे बने हुवे थे। तमाम इमारत एक भूरे रंग के पत्थर की थी। सैदार्यों के सुतून ६-६- ७ गज़ ऊँचे और तनावर दरख्तों की तरह मोटे थे।
बय्तुल हराम के अयन बिच बय्तुल्लाह था। बय्तुल्लाह के चारु तरफ सियाह परदे लटक रहे थे। और छत पर एक बहुत बड़ा बुत रखा था। निहायत डरावना और हय्बत्नाक था। सियाह पत्थर का था। मक्का के बाहर कई फासले से नज़र आता था। इस बुत का नाम हबल था। हर कबीला उस की परस्तिश करना लाज़मी और ज़रूरी समझता था।
बय्तुल हराम में लोगो का इस कदर अस्धाम हुवा की तिल दह्रने को जगा बाक़ी न रही हर कबीला मुखतलिफ बुतों की तरफ मुतावाज्जा हो गया। बुत भी सेक्रो थें। कम से कम ३६० थें। मुखतलिफ ऐत्राफ में मुखतलिफ जगा नसब थें। अजब अजब शकल के थें। एक बुत सफ़ेद पत्थर का निहायत खूबसूरत औरत की शकल का था। जिसके बाल इसतरह उस के दोष पर बिखरे हुवे थें जैसे कोयी परी पीकर हसीना अभी नहाकर उठी हो और उसने सर के बाल सुखाने के लिए कमर और कंधो पर बिखेर दिए हो। इस बुत का नाम suraa था। कबीला हुजैल इसकी परस्तिश करता था। चुनांचा इस कबीला के लोग इसके सामने आते ही सजदे में गिर पड़े।
एक और बुत सुर्ख पत्थर का था। इसकी सूरत शेर की थी। एक ऊँचे और बड़े चबूतरे पर इस शान से खड़ा था जैसे के वो शिकार पर कूदने वाला है। इस बुत का नाम पगुत था। यमन के तमाम काबाईल इसकी परस्तिश करते थें। एक बुत भूरे रंग के पत्थर का था। बिल्कुल घोडे की शकल का था। और एक वसी सियाह चबूतरे पर खड़ा था। बड़ा हय्बत्नाक था। ऐसा मालुम होता था। जैसे वो दोड़ने वाला है। इस का नाम याऊक था। इसकी परस्तिश कबीला हमदान करता था। एक और बुत था। जो सियाह पत्थर तराश कर बनाया गया था। इसकी सूरत बिल्कुल गिद्ध किसी थी। बड़ा खोफ्नाक था। सफ़ेद पत्थर पर नसब था। लम्बी चोंच खोले, परो को तोले परवाज़ करनेपर आमादा मालुम होता था। इस बुत का नाम नसर था। जिल्कला इस बुत की परस्तिश करते थें।
इन के अलावा दू, लात, मनात, उज़ज़ा, जहार, अवाल, मह्तारमा, साद, सयिर, अयानस, रजा, ज़ुल्काफैन्न , जरेश, शारिक, आयम, मदान, ऑफ, मनाफ वगेरा बहुत से बुत और अजीब अजीब शकलो सुरतो के थें।
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6 comments:
Masha Allah sahi likha hai
Masha allah
Alhamdulillah kaafi achchhi kitabı hai
Masha allah
Dil ko sukun melta hai
Mere Bhai isme bahut galtiya hai.... Bahut zyada ise re-compose karo.. Is kitab is Tarah ki galtiyan Nahi honi Chahiye...
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